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तेलगू शादी की रस्में

तेलगू शादी की रस्में

दक्षिण भारत और उत्तर भारत की शादी की रस्में एक दूसरे से काफी मिलती-जुलती होते हुए भी अलग होती हैं। वहीं तेलुगु विवाह की रस्में दक्षिण भारत के अन्य राज्यों की रस्मों से थोड़ी अलग होती हैं। शादियां यहां 15 दिन का उत्सव होता है। अव समय की कमी और भागा दौड़ी ने इस समय को 7 दिन में सीमित करने का प्रयास तो किया गया है पर तेलगु समाज अभी भी उसमें सफल नहीं हो पाया हैं। क्योंकि तेलुगु शादी की रस्में होती ही इतनी विशाल और समृद्ध हैं। तो आइए आज जानते हैं कि दक्षिण भारत की तेलुगु शादी की रस्में उत्तर भारत की शादी की रस्मों से अलग कैसे हैं।

मुहूर्तम निश्चेथ्रथुम

दूल्हा और दुल्हन के परिवार एक दूसरे से सोशल साइट अखबारों या रिश्तेदारों के माध्यम से मिलते हैं। पंडित जी द्वारा दूल्हा दुल्हन की कुंडली मिलवाई जाती है। दूल्हा और दुल्हन के बीच में सब कुछ पसंद आने पर सगाई की रस्म होती है जिसे मुहूर्तम कहा जाता है। निश्चेथ्रथुम की रस्म में सबसे पहले भगवान गणेश जी की पूजा होती है। यह रस्म दुल्हन के घर में होती है दूल्हे की मां दुल्हन को जेवर, कपड़े और सोने-चांदी के बर्तन उपहार स्वरूप देती है। दूल्हे के परिवार वाले दुल्हन के लिए और दूल्हे के परिवार वालों के लिए कपड़े लाते हैं। दुल्हन के परिवार वाले दूल्हे के परिवार वालों को उपहार स्वरूप कपड़े और दक्षिणा देते हैं। दूल्हा-दुल्हन एक दूसरे को अंगूठी पहनाते हैं पंडित जी शादी का और अन्य रस्मों के मुहूर्त निकालते हैं।

पेंडिकोथुरू

उत्तर भारतीय परिवारों में जिस तरह से हल्दी की रस्म होती है उसी तरह से तेलुगु परिवार में पेडिकोंथुरू रस्म मनाई जाती है। इस रस्म में दूल्हा दुल्हन को हल्दी बेसन और तेल का उबटन लगाया जाता है। दूल्हा और दुल्हन को उबटन लगाने के बाद उनके करीबी लोग उन्हें स्नान कराते हैं। स्नान कराने के बाद दूल्हा-दुल्हन नए कपड़े पहनते हैं। दुल्हन के माता-पिता अपने रिश्तेदारों को और रिश्तेदार दूल्हा दुल्हन को नए कपड़े उपहार में देते हैं।

स्नाथकामा / स॔थाकम की रस्म

इस रस्म में दूल्हे को चांदी की एक पतले धागे जैसे चेन पहनाई जाती है। जिस तरह से उत्तर भारतीय परिवार में जनेऊ की रस्म होती है उसी तरह से तेलुगु परिवारों में यह रस्म मनाई जाती है। यह रस्म तेलुगु परिवार में इस बात को दर्शाती है कि दूल्हा अपने परिवार की जिम्मेदारी उठाने के लिए पूर्ण रूप से तैयार है।

काशी यात्रा

उत्तर भारत में जनेऊ के बाद जिस तरह से लड़का अपने घर को छोड़कर सन्यासी बनने के लिए निकल पड़ता है। उसी तरह से तेलगु विवाह में स्नाथकामा की रस्म के बाद दूल्हा काशी यात्रा नामक अनुष्ठान में झूठ मुठ के लिए घर को छोड़कर सन्यास ग्रहण करने के लिए काशी यात्रा पर निकल पड़ता है। उसको दुल्हन का भाई इस यात्रा में न जाने के लिए मनाता है। दूल्हा उसकी बात सुनकर काशी यात्रा में जाने से रुक जाता है।

मंगल स्नानम

इस रस्म में दूल्हा दुल्हन सुबह-सुबह स्नान करते हैं। दूल्हा दुल्हन को उनके घरों में लकड़ी की चौकी पर बिठाया जाता है। जहां पर सबसे पहले दूल्हे के माता-पिता या उस घर के सबसे बड़े बुजुर्ग दंपति दूल्हा/ दुल्हन को स्नान करवाते हैं। वे तांबे के कलश से दूल्हा/ दुल्हन के ऊपर जल डालते हैं। उसके बाद परिवार के अन्य सदस्य बारी बारी से दूल्हा/ दुल्हन के ऊपर जलाभिषेक करते हैं। यह एक पारिवारिक समारोह है जिसमें बच्चे भी अपने मामा, चाचा या मौसी बुआ के ऊपर जल डालते हैं। देखने में यह समारोह बहुत आनंददायक होता है और ढेर सारी खुशियां लाने वाला होता है स्नान करने के बाद दूल्हा-दुल्हन को पूरे शरीर में तेल लगाया जाता है। तेल लगाने के बाद दूल्हा दुल्हन को तैयार करके उनकी् परिवार के सभी लोग आरती उतारते हैं। यह रस्म शादी के दिन सुबह सुबह की जाती है।

गणेश और गौरी पूजन

दूल्हा दुल्हन दोनों के घरों में सर्वप्रथम गणेश जी की पूजा होती है। गणेश जी से प्रार्थना की जाती है कि वह इस विवाह को निर्विघ्न संपन्न करें और इस विवाह में किसी भी प्रकार की कोई बाधा ना आए। दोनो परिवारों में धनधान्य प्रचुर मात्रा में रहे। गणेश पूजन के बाद मां पार्वती की पूजा की जाती है। मां पार्वती से वर वधु के खुशहाल वैवाहिक जीवन की प्रार्थना की जाती है। मां पार्वती से प्रार्थना की जाती है कि दूल्हा-दुल्हन दोनों का वैवाहिक जीवन सुखमय हो और उन दोनों के विवाह से दोनों परिवारों का मंगल हो। इसी समय दुल्हन के घर में दुल्हन की प्रवर रस्म निभाई जाती है। इसमें दुल्हन के अपने पैतृक गोत्र से दूल्हे के पैतृक गोत्र में बदलने की रस्म होती है। जब दुल्हन पार्वती जी की पूजा करती है उस समय दूल्हा दुल्हन दोनों के परिवार के बुजुर्ग दंपत्ति इस प्रवर रस्म में शामिल होते हैं।

स्वागतम

दूल्हे की मां दूल्हे की आरती उतारकर और अक्षत छिड़ककर उसे दुल्हन को लाने के लिए दुल्हन के घर भेजती है। जहां पर उसका स्वागत दुल्हन के परिवार वाले आरती उतारकर और मीठा खिला कर करते हैं। दूल्हे के स्वागत के बाद दुल्हन को मंडप तक ले जाया जाता है। मंडप पर दूल्हा अपनी दुल्हन का इंतजार करता है। जहां जाने के लिए दुल्हन को उसके मामा, मामी, चाचा, चाची एक बांस की टोकरी में लेकर जाते हैं। उस बांस की टोकरी को पल्लाकू कहा जाता है दुल्हन को एक सजे हुए चंदवा के नीचे मंडप तक आना होता है। दुल्हन के आगे एक सफेद कपड़े को पर्दे की तरह तानकर चला जाता है। जिससे दूल्हा-दुल्हन एक दूसरे को देख नहीं पाते। पंडित जी इस पूरी प्रक्रिया में पवित्र मंत्रों का जाप करते रहते हैं।

मधुपर्कम की रस्म

इस रस्म में दूल्हा दुल्हन अपने कीमती सिल्क के कपड़ों को उतारकर पूजा के लिए पारंपरिक लाल बॉर्डर वाले सूती कपड़े पहनते हैं। दुल्हन लाल बॉर्डर की सफेद सूती साड़ी पहनती है और दूल्हा लाल बॉर्डर की सफेद धोती पहनता है।

जेलाकरा बेलाम की रस्म

दुल्हन के बैठने के बाद दूल्हा दुल्हन के हाथों में एक पवित्र लेप लगाया जाता है जो जीरे और बेसन से बना हुआ होता है। इस समय पुरोहित जी पवित्र मंत्रों का जाप करते रहते हैं। दूल्हा दुल्हन के बीच में पर्दा अभी भी होता है। पंडित जी मंत्रों का जाप करते हैं और दूल्हा दुल्हन को एक दूसरे के सर पर हाथ रखने के लिए कहते हैं। दूल्हा दुल्हन एक दूसरे के सर पर हाथ रखते हैं और धीरे-धीरे अपने हाथ को पर्दे के ऊपर ले जाते हैं। हाथों को पर्दे के ऊपर ले जाते पर उन दोनों के बीच से पर्दे को हटा दिया जाता है। अब वे दोनों एक दूसरे को देख सकते हैं। यह एक पवित्र रस्म है। यह पति-पत्नी को एक-दूसरे पर विश्वास और समर्पण सिखाती है।

कन्यादान व सप्तपदी की रस्म मंगल सूत्र पहनाना

दुल्हन जब मंडप में आती है तो दुल्हन का पिता दुल्हन का हाथ दूल्हे के हाथ में देता है। इस रस्म को कन्यादान की रस्म कहा जाता है। उसके बाद सात फेरों की रस्म होती है। जिसमें चार फेरों में वर वधु के आगे चलता है और बाकी तीन पैरों में वधू वर के आगे चलती है। इसके बाद दुल्हन को मंगलसूत्र पहनाने की रस्म होती है इस रस्म में दूल्हा मंगलसूत्र पर हल्दी लगाता है। मंगलसूत्र में पीले रंग के धागे में दो सोने के पेंडल बंधे होते हैं जो आपस में तीन गाठों द्वारा जुड़े होते हैं। यह तीन गांठें मन वचन और कर्म से एक दूसरे का होने का संकेत होती है। दूल्हा दुल्हन को मंगलसूत्र पहनाता है। शादी के 16 दिनों के बाद दूल्हे के घर में एक पूजा होती है। जिसमें इस पीले धागे को निकालकर सोने के पेंडल को सोने की चेन में लगा दिया जाता है। जिसे फिर आजीवन दुल्हन को पहनना आवश्यक होता है।

मेटलु और नल्ला पुसालु/ स्थालिपक्कम की रस्म

इस रस्म में दूल्हा दुल्हन के दोनों पैरों में चांदी की बिछिया पहनाता है। कहीं-कहीं चाचा या मामा दुल्हन के दोनों पैरों में चांदी की बिछिया पहनाते हैं। इसी रस्म को स्थालिपक्कम की रस्म भी कहते हैं। बिछिया पहनाने के बाद दूल्हा दुल्हन के गले में नल्ला पुसलु पहनाता है। यह एक काले मोती और सोने के मोतियों से बनी माला होती है यह माला दुल्हन को बुरी नजर से बचाने के लिए पहनाई जाती है।

तलमब्रालू डंडालु की रस्म

शादी के बाद दूल्हा दुल्हन एक दूसरे के ऊपर पीले चावल फेंकतें हैं। यह रस्म शादी के बाद हंसी मजाक की रस्म होती है। जिसमें दूल्हा-दुल्हन एक दूसरे से चावल छीनते हुए एक दूसरे पर चावल फेंकते हैं। यह एक शुभ रस्म होती है जिसमें दूल्हा दुल्हन एक दूसरे से परिचित होते हैं व हंसी ठिठोली करते हैं। इस रस्म के बाद दूल्हा दुल्हन एक दूसरे को माला पहनाते है जिसे डंडालु की रस्म कहते हैं।। इस रस्म के बाद सब लोगों को दूल्हा-दुल्हन के ऊपर चावल फेंकना होता है। यह रस्म खुशी और संतुष्टि का और दूल्हा दुल्हन को आशीर्वाद देने का प्रतीक है। इस के बाद दुल्हा दुल्हन अपनी अपनी अंगूठी एक परात में उतारकर डालते हैं जिन्हैं दुल्हा दुल्हन को ढूंढना होता है। कहते हैं जो पहले अंगूठी ढूंढता है विवाह में उसी की चलती है।

अरुंधति नक्षत्रम

यह रस्म सुबह के 4:00 बजे होती है। पंडित जी दूल्हा दुल्हन को अरुंधति नक्षत्र जोकि दो तारे होते हैं दिखाते हैं। ये दो तारे आकाश में ऋषि वशिष्ठ और माता अरुंधति के होने का संकेत हैं । वशिष्ठ ऋषि और अरुंधति मां सदा एक दूसरे के साथ रहे आज भी दूसरे के साथ हैं। अरुंधति नक्षत्र को दिखाने का अर्थ होता है कि वशिष्ठ ऋषि और अरुंधति मां की तरह से ही दूल्हा-दुल्हन भी एक दूसरे के साथ हमेशा हमेशा रहे।

अपगिनथालू

विदाई की रस्म को तेलुगु में अपगिनथालू कहते हैं। दुल्हन की विदाई के समय दुल्हन की मां उसकी गोद फल, मेवे चावल और दक्षिणा से भरती है। दुल्हन अपनी मां के आंचल में कुछ दाने चावल के वापस डाल कर अपने मायके के धनधान्य से हमेशा भरे रहने की की प्रार्थना ईश्वर से करती है। दुल्हन की विदाई के बाद दुल्हन अपने ससुराल में गृह प्रवेश करती है।

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